आँसू से उर ज्वाल बुझाते
देह धर्म का मर्म न समझा
भोग प्राप्ति में ऎसा उलझा देह धर्म का मर्म न समझा
कर्म भोग के बीच संतुलन,खोकर सुख की आश लगाते
आँसू से उर ज्वाल बुझाते
प्रणय उच्चतर मैने माना
अमर सुधा पीने की ठाना
भोग नही बस सृष्टि कर्म है,आह समझ उस क्षण हम पाते
आँसू से उर ज्वाल बुझाते
घनीभूत विषयों का साया
भेद समझ न इसके पाया
शिथिल हुआ था ज्ञान,तिमिरयुत पथ रह रह के मुझे रुलाते
आँसू से उर ज्वाल बुझाते
विक्रम
1 टिप्पणी:
♥(¯`'•.¸(¯`•*♥♥*•¯)¸.•'´¯)♥
♥♥नव वर्ष मंगलमय हो !♥♥
♥(_¸.•'´(_•*♥♥*•_)`'• .¸_)♥
देह धर्म का मर्म न समझा भोग प्राप्ति में ऎसा उलझा
कर्म भोग के बीच संतुलन,खोकर सुख की आश लगाते
आंसू से उर ज्वाल बुझाते
आऽऽहा हाऽऽऽ हऽऽऽ !
बहुत बढ़िया !
बहुत सुंदर !
आदरणीय विक्रम जी
आपकी कुछ अन्य रचनाएं भी पढ़ी ...
बहुत सुंदर और स्तरीय काव्य लेखन कर रहे हैं आप ... ...
बधाई और आभार !
नई रचनाओं के लिए पुनः यहां आने की इच्छा रहेगी ...
:)
शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार
◄▼▲▼▲▼▲▼▲▼▲▼▲▼▲▼▲▼▲▼►
एक टिप्पणी भेजें