क्या भूलूं क्या याद करूं मैं
अब कैसा परिताप करूं मैं
या कोरा संलाप करूं मै
नील गगन का वासी होकर, कहाँ समंदर आज रचूँ मैं
क्या भूलूं क्या याद करूं मैं
खुशियों की झोली में छुप मैं
पीडा की क्रीडा में रच मैं
कर अनंत की चाह, ह्रदय को पशुवत आज बना बैठा मैं
क्या भूलूं क्या याद करूं मैं
सच का सत्य समझ बैठा मै
अपने को ही खो बैठा मै
बिछुडन के पथ मे क्या ढूढूँ, सपनों की डोली में चढ़ मै
क्या भूलूं क्या याद करूं मैं
विक्रम
3 टिप्पणियां:
vikram ji bahut hi sunder rachna dheron shubhkaamnayen.
सच का सत्य समझ बैठा मै
अपने को ही खो बैठा मै
इसके बाद तो द्वन्द्वात्मक स्थिति आनी ही थी।
nice one.
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