आँसू से उर ज्वाल बुझाते
देह धर्म का मर्म न समझा
भोग प्राप्ति में ऎसा उलझा देह धर्म का मर्म न समझा
कर्म भोग के बीच संतुलन,खोकर सुख की आश लगाते
आँसू से उर ज्वाल बुझाते
प्रणय उच्चतर मैने माना
अमर सुधा पीने की ठाना
भोग नही बस सृष्टि कर्म है,आह समझ उस क्षण हम पाते
आँसू से उर ज्वाल बुझाते
घनीभूत विषयों का साया
भेद समझ न इसके पाया
शिथिल हुआ था ज्ञान,तिमिरयुत पथ रह रह के मुझे रुलाते
आँसू से उर ज्वाल बुझाते
विक्रम