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मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

होती है जब भी शाम सखे.....






होती है जब भी शाम सखे

तरु पातों को करके कंचन
सरिता को दे सिन्दूरी तन

जाने से पहले करता है,रवि धरती का ऋँगार सखे
 होती है जब भी शाम सखे

नीडो मे सबको पहुचाता
रवि अस्ताचल को हैं जाता


पश्चिम की गोदी मे छुप कर वह करता हैं ,विश्राँम सखे
 होती है जब भी शाम सखे

मेरी आशा की श्रांत किरण
लौटी हैं दुःख का किये वरण

आकर दृग बिन्दु कपोलों पर, रक्तिम होते हर शाम सखे
 होती है जब भी शाम सखे
vikram

3 टिप्‍पणियां:

मनोज कुमार ने कहा…

प्रकृति से साक्षात्कार दिलचस्प है।

कुमार संतोष ने कहा…

waah...!!
Aanand aa gaya

virendra sharma ने कहा…

लोरी की तरह गुदगुदाती है यह रचना .